13 वर्षों के अंतराल के बाद शुरू हुआ पांडव लीला का भव्य आयोजन

@हिंवाली न्यूज़ ब्यूरो (21 दिसम्बर 2022)

गोपेश्वर। 13 वर्षों के अंतराल के बाद चमोली जनपद के मंडल घाटी में पांडव लीला का आयोजन किया जा रहा है।


आयोजन के पांचवें दिन बुधवार को भी लीला का मंचन किया गया। भारी संख्या में आये पांडव भक्तों ने लीला का आंनद लिया।

अध्यक्ष नंदन सिंह राणा ने कहा कि यह लीला हमारी संस्कृति की पहचान है। जो हमें आपस में मिलन कराते हैं। यह हमारी संस्कृति और परंपरा है। इसे बचाये रखना हमारा धर्म ही नहीं कर्तव्य बनता है। पांडव नृत्य उत्तराखंड राज्य का एक प्रमुख लोकनृत्य के रूप में जाना जाता है। यह नृत्य महाभारत में पांच पांडवों के जीवन से सम्बंधित है। पांडव नृत्य के बारे में हर वो व्यक्ति जानता है, जिसने अपना जीवन उत्तराखंड की सुंदर वादियों, अनेको रीति रिवाजों,सुंदर परम्पराओं के बीच बिताया हो। पांडव नृत्य के माध्यम से पांच पांडवों व द्रोपदी की पूजा अर्चना करने की परंपरा वर्षों से चली आ रही है।उत्तराखंड को पांडवो की धरा भी कहा जाता है। पांडव नृत्य का आयोजन हर साल नवंबर से फरवरी तक गढ़वाल क्षेत्र में किया जाता है। इसमें लोग वाद्य यंत्रों की थाप(18 बाजे 36 ताल) और धुनों पर नृत्य करते हैं। मुख्यतः जिन स्थानों पर पांडव अस्त्र छोड़ गए थे वहां पांडव नृत्य का आयोजन होता है।


पाण्डव नृत्य देवभूमि उत्तराखण्ड का पारम्परिक लोकनृत्य है। पाण्डव गण अपने अवतरण काल में यहाँ वनवास, अज्ञातवास, शिव जी की खोज में और अन्त में स्वर्गारोहण के समय आये थे। महाभारत के युद्ध के बाद पांडवों ने अपने विध्वंसकारी अस्त्र और शस्त्रों को उत्तराखंड के लोगों को ही सौंप दिया था और उसके बाद वे स्वर्गारोहिणी के लिए निकल पड़े थे, इसलिए अभी भी यहाँ के अनेक गांवों में उनके अस्त्र- शस्त्रों की पूजा होती है और पाण्डव लीला का आयोजन होता है।


पाण्डव नृत्य कराने के पीछे गांव वालों द्वारा विभिन्न तर्क दिए जाते हैं, जिनमें मुख्य रूप से गांव में खुशहाली, अच्छी फसल और माना जाता है कि गाय में होने वाला खुरपा रोग पाण्डव नृत्य कराने के बाद ठीक हो जाता है।


इस भव्य और वृहद् आयोजन के दौरान गढ़वाल में भौगोलिक दृष्टि से दूर दूर रहने वाली पहाड़ की बहू- बेटियां अपने मायके आती हैं, जिससे उनको वहाँ के लोगों को अपना सुख दुःख बताने का अवसर मिल जाता है, अर्थात् पाण्डव नृत्य पहाड़वासियों से एक गहरा संबध भी रखता है।


पाण्डव नृत्य के आयोजन में सर्वप्रथम गांव वालों द्वारा पंचायत बुलाकर आयोजन की रूपरेखा तैयार की जाती है। सभी गांव वाले तय की गई तिथि के दिन पाण्डव चौक में एकत्र होते हैं।
पाण्डव चौक उस स्थान को कहा जाता है, जहां पर पाण्डव नृत्य का आयोजन होता है। ढोल एवं दमाऊं जो कि उत्तराखण्ड के पारंपरिक वाद्य यंत्र हैं, जिनमें अलौकिक शक्तियां निहित होती हैं। इन दो वाद्य यंत्रों द्वारा पाण्डव नृत्य में जो पाण्डव बनते हैं, उनको विशेष थाप द्वारा अवतरित किया जाता है और उनको पाण्डव पश्वा कहा जाता है। वे गांव वालों द्वारा तय नहीं किए जाते हैं, प्रत्युत विशेष थाप पर विशेष पाण्डव अवतरित होता है, अर्थात् युधिष्ठिर पश्वा के अवतरित होने की एक विशेष थाप है, उसी प्रकार भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव आदि पात्रों की अपनी अपनी विशेष थाप होती है। पाण्डव पश्वा प्रायः उन्हीं लोगों पर आते हैं, जिनके परिवार में यह पहले भी अवतरित होते आये हों। वादक लोग ढोल- दमाऊं की विभिन्न तालों पर महाभारत के आवश्यक प्रसंगों का गायन भी करते हैं।
इस प्रकार यह उत्तराखंड की सदियों से चली आ रही उत्तराखण्ड की अनुपम सांस्कृतिक धरोहर है।

वहीं लीला में पंडित भगवती प्रसाद डिमरी,नवीन सेमवाल तथा ढोल दमाऊ वादक दिनेश लाल, गिरीश लाल एवं आनंद लाल ने पूजा अर्चना व ढोल दमाऊ विद्या के माध्यम से पांडव पश्वो को अवतरित कर पांडव नृत्य का मंचन किया गया।
पांडवों द्वारा क्षेत्र की खुशहाली के लिऐ सभी भक्तों को आशीर्वाद दिया गया। पांडव नृत्य में नारायण भगवान के पाश्वा के रूप में कृष्णा,धर्मराज युधिष्ठिर अजीत बिष्ट, भीमसेन धर्मेंद्र बिष्ट, अर्जुन प्रभात बिष्ट, नकुल योगेंद्र बिष्ट , सहदेव आशीष सेमवाल, नागार्जुन विनोद बिष्ट , बर्बरीक अवतार सिंह, द्रौपदी रघुवीर सिंह राणा, वीर हनुमान आयुष बिष्ट, तिलबिलु लक्ष्मण फ़र्श्वाण पांडुवाणी गायक सुरेंद्र सिंह बिष्ट के विभिन्न जागर व नृत्य शैली को दर्शकों द्वारा खूब सराहा गया।

इस मौके पर कमेटी के अध्यक्ष नंदन सिंह राणा, कोषाध्यक्ष दिनेश फ़र्श्वाण, सचिव कलम सिंह,प्रबंधक राजेन्द्र सिंह बिष्ट व राम सिंह बिष्ट,पुष्कर बिष्ट,उमानन्द सेमवाल,वेदप्रकाश फ़र्श्वाण,रितिक बिष्ट, विकास बिष्ट,अभिषेक आदि मौजूद थे।

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