उत्तरकाशी: रवांई घाटी के चित्राक्षर और शिलालेखों में भाषा विकास की धरोह, संरक्षित करने की जरूरत

उत्तरकाशी: रवांई घाटी के चित्राक्षर और शिलालेखों में भाषा विकास की धरोह, संरक्षित करने की जरूरत पहाड़ समाचार editor

खास खबर :  रवांई घाटी ऐतिहासिक रहस्यों को समेत हुए है। सांस्कृतिक महत्व के साथ ही रवांई घाटी ऐतिहासिक महत्व भी रखती है। हालांकि, रवांई घाटी को ज्यादातर इतिहासकारों ने…

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उत्तरकाशी: रवांई घाटी के चित्राक्षर और शिलालेखों में भाषा विकास की धरोह, संरक्षित करने की जरूरत पहाड़ समाचार editorखास खबर :
रवांई घाटी ऐतिहासिक रहस्यों को समेत हुए है। सांस्कृतिक महत्व के साथ ही रवांई घाटी ऐतिहासिक महत्व भी रखती है। हालांकि, रवांई घाटी को ज्यादातर इतिहासकारों ने इतिहास के लिहाज से नहीं देखा। बल्कि, रवांई के सांस्कृति पक्ष को ही अधिक महत्व दिया गया है। लेकिन, इतिहासकार डॉ. विजय बहुगुणा ने रवांई घाटी में राजकीय महाविद्यालय बड़कोट में अपने सेवाकाल के दौरा रवांई के ऐतिहासिक पक्ष पर काफी अध्ययन किया।
सांस्कृतिक एवं एतिहासिक महत्व रखने वाली सीमांत उत्तरकाशी जिले की रवाईं घाटी में भाषा विकास से जुड़े चित्राक्षर और शिलालेख मिल चुके हैं। इतिहासकारों के अनुसार ब्राह्‌मी लिपि में लिखे ये शिलालेख उत्तरावर्ती मौर्य काल के हैं। जबकि चित्राक्षर (पिक्टोग्राम) नवपाषण युग से मेल खाते हैं। इससे साफ हो जाता है कि भाषा विकास में रवांई घाटि का खासा योगदान रहा है। उसके साक्ष्य आज भी वहां मौजूद हैं। लेकिन, चिंता की बात यह है कि उनको अब तक संरक्षित करने का काम नहीं किया गया है।
रवांई क्षेत्र में चट्टानों पर कप (ओखलीनुमा) आकृतियां भी मिलती हैं। डॉ. विजय बहुगुणा ने बताया कि मानव इनका उपयोग आखेट के लिए किया करते थे। पुरोला तहसील के हुडोली गांव को जोड़ने वाले मार्ग पर कमल नदी कीे बायीं ओर एक चट्टान पर पक्षियों और मछली के विभिन्न रंगों में चित्राक्षर मिले हैं। इसके साथ ही हुडोली गांव से एक किलोमीटर की दूरी पर ठडूंग गांव के निकट एक चट्टान पर उत्तरवर्ती मौर्यकालीन ब्राह्माी लिपि में एक छोटा-सा लेख भी अंकित है।

इसी पहाड़ी की चट्टान पर ओखली की तरह छोटे-छोटे कप के चिह्‌न बने भी मिले हैं। इनकी खोज और इन पर शोध कुमाऊं विश्वविद्यालय नैनीताल के प्रोफेसर एमपी जोशी और राजकीय महाविद्यालय बड़कोट (उत्तरकाशी) के डॉ. विजय बहुगुणा ने किया। उनका शोधपत्र भी प्रकाशित हो चुका है। डॉ. विजय बहुगुणा बताते हैं कि हुडोली और ठडूंग गांव में ब्राह्माी लिपि के लेख, चित्राक्षर व कप चिह्न स्पष्ट रूप से भाषा के विकास में हिमालय के महत्व को दर्शाते हैं। ये प्रमाण इस बात को भी साबित करते हैं कि भाषा के विस्तार के क्षेत्र में हिमालय एक महत्वपूर्ण क्षेत्र रहा है।
इतिहासकार डॉ. विजय बहुगुणा का कहना है कि रवांई घाटी में उत्तरवर्ती मौर्य काल और नवपाषण युगीन संस्कृति के प्रमाण उपलब्ध हैं। रवांई घाटी के आसपास लाखामंडल, पुरोला की यज्ञवेदिका और कालसी में शिलापट के प्रमाण मौजूद हैं। रवांई घाटी में हाल ही में मिले चित्राक्षर, शिलालेख और कप चिह्न के प्रमाणों को संरक्षित करने के लिए अभी तक कोई प्रयास नहीं हुए हैं। जबकि, इन प्रमाणों का शोध रॉक आर्ट ऑफ इंडिया बुक में भी प्रकाशित हो चुका है।
चंपावत जिले के देवीधुरा में चट्टानों पर पेलियो आर्ट के चिह्न मिल चुके हैं, जिनमें प्रागैतिहासिक काल के खूबसूरत दृश्यों और सौंदर्य भावों को अभिव्यक्त किया गया है। अल्मोड़ा जिले के रानीखेत के महारू-उदय व ढकाधकी गांव और चमोली जिले के छिनका और किमनी गांव के पास भी चित्राक्षर मिले।उत्तरकाशी: रवांई घाटी के चित्राक्षर और शिलालेखों में भाषा विकास की धरोह, संरक्षित करने की जरूरत पहाड़ समाचार editor

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